पर कुछ बेबस माएँ भी हैं

दिल्ली की ठिठुरती ठंड बेजान शरीर की तरह है
आम आदमी जहाँ ख़ुद को बचाता है ,गर्म कपड़ों से
अपनी चारदीवारी के अंदर गर्म कम्बलों,रजाइयों
और तरह-तरह के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से
वहीँ बेबस,लाचार, बेघर , सर्वत्र फैली आबादी
पर ही असली कहर बरपता है
चारदीवारी के अंदर वाली माँ तो गर्म कंबलों
के बाबजूद भी अपने बच्चों को सीने से लगाये
सोती है
पर कुछ बेबस माएँ भी हैं ,जो इस कपकपाती ठंड में
लाचार , चिथड़े में , चिथड़े कंबल में बच्चों को अपने
सीने से चिपकाए खुले आसमान या फिर कहीं
कोने में ज़मीन पर लेटे रात बीतने का इंतज़ार करती है
मैं खाने के बाद ,कुछ दोस्तों के साथ
ऐसे ही किसी सड़क से गुजरता हूँ
कुछ ऐसे ही लाचार लोग हाथ फैलाये
भैया ,मालिक कहते हुए ,कुछ मागते हैं
मैं अपने बटुए की तरफ देखता हूँ
फिर शर्मबोध से सर नीचे किये
आगे बढ़ जाता हूँ
पास की दुकान पर ,एक दोस्त
सिगरेट के लिए पैसे निकालता है
सड़क के कुत्ते भी कुछ खाने की चीज़
के लालसे में मुह ऊपर करते हैं
और फिर वापस किसी और के पास
जाते हैं।  

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