एक भयावह सा सन्नाटा

सूनी राहें अपनी लगती
अनजानी है , पर अपनापन है
आज एक लम्बे अरसे के बाद शहर को लौटा।
शहर बिकसित हो रहा था ,पर बस्तियां उजड़ गयी
फ्लाईओवर बनी तो ,पर नीचे गरीबों का आशियाना छीन गया।
गली के किनारे वाली हनुमान मंदिर वैसी ही है
मंदिर के सीढ़ियों पर त्रिपुंड धारी पंडित  मूछों पर ताव दे रहा था ,
मानो जैसे देवताओं की कृपा ने उसकी जगह जड़ रखी हो।  
चौराहे के पास वो बूढ़ा दर्जी आज भी अपनी वर्षो पुरानी चाल में मस्त 
आस-पास की दुनिया से अनजान 
दूसरों के शादियों के कपड़े  बना रहा है। 
पास ही एक धोबी की जीर्णशीर्ण झोपड़ी है ,
झोपड़ी मानो उसके बहादुरी की कहानी सुना रही हो। 
आज भी वो पुरानी रेडियो पे पुरानी धुनों के साथ ,
अपने काम में खोया हुआ है मानो सालो से कुछ बदला ही ना हो,
सबकुछ बदला हुआ नजर आया ,पर शायद कुछ बदला ही नहीं। 
एक ओर सुनी गलियों में अपनापन है , बचपन की यादें हैं 
तो दूसरी तरफ भरी हुई ,ठहाके लगाती हुई मंडली है 
पर शायद इन ठहाकों के बीच एक भयावह सा सन्नाटा है। 



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